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Saturday, September 18, 2010

बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाय

बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाय

स्वामी चैतन्य कीर्ति
वैज्ञानिक स्टीफन हॉकिंग ब्रह्मांड के निर्माण अथवा उसे चलाने में परमात्मा की कोई भूमिका स्वीकार नहीं करता। वह करे भी कैसे? क्या यह वैज्ञानिक अथवा कोई भी वैज्ञानिक अपने भीतर ध्यान में उतर कर अपनी ही आत्मा की अनुभूति करता है, जैसे बुद्ध, महावीर, जीसस, गुरुनानक, कबीर जैसे रहस्यदर्शियों ने की। जो व्यक्ति अपनी आत्मा को ही स्पर्श नहीं कर पाता है, अपनी ही चेतना की प्रत्यभिज्ञा नहीं कर पाता है, उससे यह उम्मीद कैसे की जा सकती है कि वह परमात्मा की प्रतीति कर सकता है?

वह फिजिक्स जानता है, गणित जानता है तथा विज्ञान की अनेक खोजों से भलीभांति परिचित है, लेकिन उसका यह जानना उसके मस्तिष्क की सीमा के भीतर बने रहते हुए असीम ब्रह्मांड के रहस्यों को उद्घाटित कर सकता है? बूंद सागर को अपने भीतर कैसे समाहित कर सकती है। इस कार्य में तो केवल वे ही समर्थ हो पाते हैं जो अपनी सीमा को असीम में समर्पित करने का साहस करते हैं; जैसे कबीर..जो उद्घोष करते हैं : बुंद समानी समुंद में सो कत हेरी जाय।

बूंद में उतना ही परमात्मा है जितना समुद्र में, कोई गुणात्मक फर्क नहीं, केवल परिमाणात्मक फर्क है। लेकिन सागर होने के लिए बूंद को अपने को सागर में छोड़ देना पड़ता है। पूर्ण का पूर्ण का मिलन होता है और अस्तित्व अपने रहस्यों को खोल देता है। ईशावास्य उपनिषद का सूत्र है :

ऊँ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात्पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादया पूर्णमेवावशिष्यते। ऊँ शांति: शांति: शांति:।
अर्थात् ऊँ वह पूर्ण है और यह भी पूर्ण है; क्योंकि पूर्ण से पूर्ण की उत्पत्ति होती है तथा पूर्ण का पूर्णत्व लेकर पूर्ण ही बचा रहता है। ऊँ शांति: शांति: शांति:।

पूर्ण से पूर्ण का उत्पन्न होना यह सत्य मस्तिष्क को सामान्य तल पर समझ नहीं आ सकता, क्योंकि यह गणित के ऊपर की बात है। ओशो समझाते हैं : जिंदगी साधारण गणित नहीं है। बहुत श्रेष्ठतर, गहरा, सूक्ष्म गणित है। ऐसा गणित है जहां आंकड़े बेकार हो जाते हैं। जहां गणित के जोड़ और घटाने के नियम बेकार हो जाते हैं। और जिस आदमी को गणित के पार, जीवन के रहस्य का पता नहीं है, उस आदमी को जीवन का कोई भी पता नहीं है।

जब आप किसी को प्रेम देते हैं, तो आपके पास प्रेम कम होता है? आप पूरा ही प्रेम दे डालते हैं, तब भी आपके पास कुछ कमी हो जाती है? नहीं। आदमी के पास इस सूत्र को समझने के लिए जो निकटतम शब्द है वह प्रेम है। ..पूर्ण से पूर्ण निकल आए और पीछे पूर्ण ही शेष रह जाए, तो इसका अर्थ हुआ कि वह गणित से नहीं समझाया जा सकेगा, प्रेम से समझना पड़ेगा। इसके लिए जो आइंस्टीन के पास समझने जाएंगे, वे नहीं समझ पाएंगे। मीरा के पास समझने जाएं, चैतन्य के पास समझने जाएं, तो शायद समझ में आ जाए।

इसी प्रेम के रहस्य को डूबकर समझने में, बूंद के अंतर्निहित रहस्य की अनुभूति के आधार पर समूचे अस्तित्व, ब्रह्मांड की अनुभूति संभव है। ओशो कहते हैं कि परमात्मा का अर्थ है: सारी चीजों के भीतर जो है-पन, वह जो इजनेस, जो एक्जिस्टेंस है, जो अस्तित्व है, जो होना है-वही। कितनी ही चीजें बनती चली जाएं, उस होने में कुछ जुड़ता नहीं। और कितनी ही चीजें मिटती चली जाएं, उस होने में कुछ कम होता नहीं। वह उतना का ही उतना, वही का वही-अलिप्त और असंग, अस्पर्शित। परमात्मा की पूर्णता अनंत पूर्णता है। अनंत पूर्णता का अर्थ है कि उसमें से अनंत पूर्ण प्रकट हो सकते हैं। एक-एक व्यक्ति पूरा का पूरा परमात्मा है। एक-एक अणु पूरा का पूरा विराट है।

निष्कर्ष में हम यह कह सकते हैं कि परमात्मा इस जगत से अलग नहीं है, वह कण-कण में, अणु-अणु में समाया है। वह समूचे जगत का ब्रह्मांड का है-पन है, उससे पृथक नहीं। वह स्वयं अपना सृजन कर रहा है और स्वयं में लीन हो रहा है। परमात्मा ने जगत को बनाया है, क्योंकि उसमें वह स्वयं बनता है; आकार बनते हैं मिटते हैं, लेकिन उनका है-पन, सदा सनातन है।

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{ courtesy: LIVEHINDUSTAN / HT MEDIA}






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